समुचित सार्वजनिक संसाधनों के साथ बुनियादी सुविधाएं प्रदान करने वाले नियमन के इस्तेमाल से उत्पादकता में इजाफा होना सुनिश्चित है। इस बारे में विस्तार से जानकारी दे रहे हैं श्याम पोनप्पा
तीसरी तिमाही में वृद्घि दर निराश करने वाली रही लेकिन इसमें चक्रीय सुधार की गुंजाइश है क्योंकि विनिर्माण का परचेजिंग मैनेजर्स इंडेक्स 14 महीने के उच्चतम स्तर पर है। वृद्घि में सुधार लाने के लिए हमारे नीति निर्माताओं को कम ब्याज दरों के अलावा भी थोड़ा रचनात्मक होना होगा। इस दिशा में हम क्या कर सकते हैं, इस सिलसिले में कुछ सुझाव इस प्रकार हैं: इस हकीकत को स्वीकार करना होगा कि देश में निवेश योग्य फंड हमारी जरूरतों से कम हैं। इसमें हमारे शेयर, पूंजी की आवक तथा निवेश पर मिलने वाला लाभ सभी शामिल हैं। हम अपनी उत्पादक क्षमता बढ़ाने का प्रयास कर सकते हैं या फिर यथास्थिति चलते रहने दे सकते हैं। ऐसा क्यों? इसलिए क्योंकि हमारी गतिविधियां इतना मुनाफा नहीं दे रहीं कि हम सतत निवेश बरकरार रख सकें। हमें बुनियादी ढांचे मसलन परिवहन और मालवहन, बिजली, पानी और सीवरेज तथा संचार जैसे मूल बुनियादी क्षेत्र तथा सुरक्षा और कानून-व्यवस्था, स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा और प्रशिक्षण, बैंकिंग, वित्त और बीमा आदि द्वितीयक बुनियादी क्षेत्रों में भी निवेश की आवश्यकता है। बाजार और बाजार गतिविधियों के पुनर्गठन की आवश्यकता है। कृषि, बुनियादी ढांचा और सरकारी खरीद आदि क्षेत्रों में ऐसा किया जा सकता है। इसमें दो राय नहीं कि डिजिटल संचार इन सभी क्षेत्रों में बहुत मायने रखता है। सवाल यह है कि इन क्षेत्रों में वांछित परिणाम कैसे हासिल किया जाए।
दूरसंचार सेवा प्रदाताओं के मुनाफे में कमी आई है। उनका नेटवर्क कवरेज अपर्याप्त है और वे कर्ज में डूबे हैं। ऐसे में अगर सबकुछ पहले की तरह चलता रहा तो उनकी पहुंच और उत्पादकता पर असर पडऩा लाजिमी है। ग्रामीण इलाकों में दिक्कत और अधिक है। वहां संचार की लागत अधिक है क्योंकि उपभोक्ता काफी बंटे हुए हैं जबकि राजस्व की संभावनाएं बहुत सीमित। इस बीच हमारे रुख में कई कमियां भी हैं। नैशनल ऑप्टिकल फाइबर नेटवर्क (भारत ब्रॉडबैंड नेटवर्क लिमिटेड या भारतनेट) को देशव्यापी फाइबर नेटवर्क की रीढ़ माना जा रहा था। योजना यह थी कि देश की 2.50 लाख ग्राम पंचायत तक ऑप्टिकल फाइबर बिछाई जाए और देश के करीब 6 लाख गांवों को इससे जोड़ा जाए। एक बड़ा अनुमान यह था कि निजी परिचालक गांवों के लिए नेटवर्क तैयार करेंगे। यह अनुमान हकीकत से दूर था। पहली बात तो यह कि बड़े भूभाग में फैले लेकिन कम राजस्व वाले उपभोक्ताओं के लिए ऐसी कोई कवायद करना व्यवहार्य नहीं था। दूसरा, बेतार तकनीक के लिए सहायक नियमन भी मौजूद नहीं थे, न हैं। उदाहरण के लिए 5 गीगाहट्र्ज की स्थापित वाईफाई रेंज जो दुनिया भर में वाईफाई हॉटस्पॉट के लिए इस्तेमाल होती है उसे भी भारत के शहरी या ग्रामीण प्रतिष्ठानों में प्रभावी ढंग से नहीं प्रयोग किया जा सकता था क्योंकि नीतियां अनुकूल नहीं थी। अब 5 गीगाहट्र्ज के लिए नए नियमन से हालात बदले हैं लेकिन यह कदम हाल ही में उठाया गया है। बीच के इस्तेमाल और अंतिम सिरे तक लिंक के लिए अन्य बेतार तकनीक अब भी बंद हैं, इन्हें शुरू करने के लिए नियमन की आवश्यकता है।
700 मेगाहट्र्ज बैंड: इसकी उच्च कीमतों के चलते किसी सेवा प्रदाता ने इसके लिए बोली नहीं लगाई, हालांकि यह 5 से 10 किमी की दूरी के लिए काफी उपयोगी है और दीवारों आदि को भी भेदने में सक्षम है। 500 और 600 मेगाहट्र्ज बैंड के साथ इसका इस्तेमाल ग्राम पंचायतों को करीबी गांवों से जोडऩे में किया जा सकता है। 14 राज्यों के आंकड़े बताते हैं कि अधिकांश गांव इसके दायरे में आ जाएंगे।
500 और 600 मेगाहट्र्ज बैंड का आवंटन टेलीविजन के लिए किया गया है। देश में इसका बहुत कम हिस्सा प्रसारण में इस्तेमाल किया जाता है क्योंकि फ्री टु एयर टेलीविजन सीमित है और बेहतर विकल्प उपलब्ध हैं। चूंकि ये प्रसारण के लिए हैं इसलिए इनका इस्तेमाल दूरसंचार के काम में नहीं होता।
70 से 80 गीगाहट्र्ज यानी ई बैंड 3-4 किमी की छोटी दूरी के लिंक कवरेज के लिए प्रभावी है, परंतु भारत में इसकी इजाजत नहीं है, हालांकि कई देशों में इसका लाइसेंस अत्यंत कम है। अमेरिका, ब्रिटेन, रूस और ऑस्ट्रेलिया इसका उदाहरण हैं। आदर्श स्थिति में देखा जाए तो नियमन को वैश्विक मानकों के अनुकूल होना चाहिए लेकिन सेवा प्रदाताओं पर भारी भरकम शुल्क लगता है, स्पेक्ट्रम नीलामी का कर्ज, निवेश की आवश्यकता और कम राजस्व की भी दिक्कत बनी हुई है। सेवाप्रदाताओं को बिना लाइसेंस पहुंच के ई-बैंड का इस्तेमाल करने देने की दलील बढ़ रही है। अतिरिक्त ट्रैफिक से राजस्व बढ़ेगा जिससे सरकार के संग्रह में भी इजाफा होगा।
60 गीगाहट्र्ज (1.6 किमी तक की दूरी के लिए वी बैंड) के लिए भारतीय सेल्युलर ऑपरेटर्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया (सीओएआई) इसे अधिकांश देशों की तरह लाइसेंस मुक्त बनाने का विरोध करता है और चाहता है कि इसे सेवाप्रदाताओं को दिया जाए। ई-बैंड की ही तरह सेवा प्रदाताओं को इसके बिना लाइसेंस के प्रयोग की इजाजत दी जा सकती है। कुछ वर्ष पश्चात समीक्षा की जा सकती है।
बाजार ढांचा और संगठन
एक बड़ी समस्या यह है कि विरासती ढांचागत और संगठनात्मक समस्याओं से निपटने के लिए समुचित नीतिगत पहल की आवश्यकता होगी। शायद अबाध संचार के लिए यह भी एक बड़ी आवश्यकता है। एक के बाद एक सरकारों ने बीएसएनएल और एमटीएनएल के सुधार के लिए योजनाएं प्रस्तुत कीं। इन दोनों कंपनियों की तुलना विमानन क्षेत्र में एयर इंडिया और इंडियन एयरलाइंस से की जा सकती है। सरकार ने संचार के महती लक्ष्यों को समुचित समर्थन नहीं दिया है। कई बार तेजी से बदले, तकनीकी रूप से जटिल उद्यमों को लेकर समझ की कमी रहती है। इन्हें प्राय: समय पर पूंजी और कौशल संवद्र्घन आदि की आवश्यकता होती है। बीएसएनएल और एमटीएनएल का पराभव हो रहा है। इसकी अवसर लागत नागरिकों को चुकानी पड़ती है। बहरहाल, माना जा सकता है कि समुचित नेतृत्व और संगठनात्मक क्षमता निर्माण के साथ ये उपक्रम अबाध संचार मुहैया करा सकते हैं। ऐसा तभी संभव है जब निजी क्षेत्र नेतृत्व, संगठन और पूंजी मुहैया कराए जबकि सरकार जनहित का बचाव करने का काम करे।
भारती एयरटेल के चेयरमैन सुनील मित्तल ने सुझाव दिया है कि ऑप्टिकल फाइबर नेटवर्क के लिए वोडाफोन के साथ गठजोड़ किया जाए। भारती और वोडाफोन पहले ही इंडस टावर्स के नाम से संयुक्त उपक्रम में हैं जो सेवा प्रदाताओं को बुनियादी सुविधा देता है। इन बातों को ध्यान में रखें तो नियमन की समूची मांग को सेवा आपूर्ति, पूंजी जुटाने, उपकरण और मानव संसाधन की ओर केंद्रित किया जा सकता है। नियामकीय रुख ऐसा होना चाहिए कि नागरिकों के लिए जरूरी सार्वजनिक संसाधनों तक समतापूर्ण पहुंच सुनिश्चित हो सके, न कि बाधाएं खड़ी की जाएं।